● गांव की याद में डूबे, करोड़ों गरीब।

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●  गांव की याद में डूबे, करोड़ों गरीब। 
जीवन हो, समाज हो, संस्था हो या राष्ट्र हो; इन सभी जीवनों में प्रारम्भ से ही  उतार-चढ़ाव आते रहे हैं। कोरोना वैश्विक महामारी भी इसी तरह की एक घटना है। सुघटना हो या दुर्घटना, दोनों के ही दो पहलू पाए जाते हैं। एक सकारात्मक, एक नकारात्मक। कोरोना का नकारात्मक पक्ष है कि वह मानव का जीवन समाप्त कर रहा है। वहीं, उसका दूसरा पक्ष है कि कोरोना के कारण शहरों में रहने वाले परदेशी लोगों को गांव की बहुत याद आ रही है। ग्रामीण परिवेश से निकलकर भारत के भिन्न-भिन्न शहरों एवं बड़े-बड़े महानगरों में जीविकोपार्जन करने के लिए जाने वाले गांव भूल गए और आज उन्हें सबसे ज्यादा गांव की याद आ रही है। वैश्विक महामारी कोरोना का संदेश है कि गांव और शहर के बीच में सदैव संतुलन रहना चाहिए। जैसे संतुलित आहार शरीर को स्‍वस्‍थ रखता है, वैसे ही गांव और शहर का संतुलन रहने से ही भारत की संस्कृति भी बचेगी और प्रगति भी होगी। 
             भारत के गांव अंग्रेजीराज से हज़ारों वर्ष पहले वैदिककाल में भी हर तरह से प्रतिभा संपन्न थे। गांव में ज्ञान था। विज्ञान था। वेद थे, उपनिषद थे, पुराण थे, महाभारत था   और रामचरितमानस भी। ऋग्वेद में कहा गया  हैः 'पृथ्वीः पूः च उर्वी भव।' अर्थात्, समग्र पृथ्वी, सम्पूर्ण परिवेश परिशुद्ध रहें; नदी, पर्वत, वन, उपवन सब स्वच्छ रहें; गांव, नगर सबको विस्तृत और उत्तम परिसर प्राप्त हो, तभी जीवन का सम्यक् विकास हो सकेगा। ऋषि और कृषि की भूमि भारत की ग्राम्यसभ्यता और संस्कृति की विश्व में धाक थी। भारत को विश्वगुरु यों ही नहीं कहा गया। ज्ञान और प्रतिभा के मामले में शिखर पर था यह। महात्मा गांधी ने 1909 में 'हिन्द स्वराज' में भारतीय गांवों का चित्र खींचते हुए भारतीय ग्राम संस्कृति को विश्व संस्कृति बताया था। उन्होंने जोर देकर कहा था, 'अगर गांव नष्ट होता है तो भारत भी नष्ट हो जाएगा, भारत किसी मायने में भारत नहीं रहेगा।‘ उन्होंने सच ही 'गांव को भारत की आत्मा' कहा था। उनका मानना था कि न केवल भारत बल्कि विश्व व्यवस्था का उज्ज्वजल भविष्य गांवों पर निर्भर  करता है। 
         लेकिन आजादी के बाद दशकों तक ऐसी सरकारी नीति रही, शहर फैलता गया गांव सिमटता गया। फैलता शहर गांव को निगलता गया। महानगरों के आस-पास के गांव गांव दुबकते गए, वहीं गांव में शहर घुस आया। शहर अमीर हो गया, गांव गरीब हो गया। शहर खानेवाला, जबकि गांव उगानेवाला बनकर रह गया। शहर की स्वार्थी सभ्यता ने गांव को गुलाम बना दिया। शहरी लालच में गांव वीरान होने लगा। किसी ने सुध न ली ,न सरकारों ने, न व्यक्ति ने और न समाज ने। दुष्परिणाम  सामने है। 1951 में भारत की 83 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती थी, आज घटकर 69 प्रतिशत रह गई है। गांव समृद्ध हो, इसकी न नीयत रही है और न नीति। 1951 में गांव का बजट का कुल बजट का 11. 4  प्रतिशत था, 1960-61 में 12 प्रतिशत, 1970-71 में 9.5 प्रतिशत, 1980-81 में 10.9 प्रतिशत, 1990-91 में 10.8 प्रतिशत, और 2000-01 में 9.7 प्रतिशत थी,  2019-20 में 9.83 प्रतिशत। वहीं 1970-71 में देश के कुल कार्यबल का 84 प्रतिशत गांवों में था, जो 1980-81 में घटकर 80.8  प्रतिशत, 1990-91 में 77. 8 प्रतिशत , 2010-11 में 70.9 प्रतिशत और वर्तमान में घटकर लगभग 70 प्रतिशत रह गया है। देश के 70 प्रतिशत कार्यबल के लिए 10 प्रतिशत से भी कम बजट। ऐसे में गांव की समृद्धि में अभिवृद्धि कैसे हो सकती है? ग्राम स्वराज्य का सपना कैसे पूरा हो सकता है? 
         आजादी के बाद देश की बागडोर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के हाथ में आई, जो बहुत ही संपन्न परिवार के थे। आजादी की लड़ाई में गांधी जी के मार्गदर्शन में उनकी भूमिका रही, पर आजादी के बाद महात्मा गांधी के विचारों, खासकर उनके ग्राम स्वराज के विचारों की सबसे अधिक अनदेखी जिसने की तो वे स्वयं जवाहर लाल नेहरू थे। हालांकि वे अपने भाषणों में कहा करते थे 'सब कुछ इन्तजार कर सकता है पर कृषि नहीं'। पर उनकी करनी में कहीं पर भी कृषि को महत्त्व नहीं दिया गया। ‘भारत गांव का देश है’ ,अब तक के सभी प्रधानमंत्रियों ने यही बात कही है। कौन नहीं जानता भारत गांवों में बसता है! लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि गांव की कितनी चिंता की गई? डेढ़ वर्षों के अपने अल्प कार्यकाल में भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने गांव एवं किसान की चिंता करते हुए 'जय जवान जय किसान' का नारा दिया। गांव और किसान के जीवन में आशा की नई किरण का संचार हुआ लेकिन उनकी आकस्मिक मृत्यु ने आशा की उस किरण को भी मृत कर दिया। अत्यंत अल्पकालिक कार्यकाल के कारण मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर चाहकर भी बहुत कुछ नहीं कर पाए। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की नीति 'गरीबी हटाओ' के नारे से आगे नहीं बढ़ पाई। गांव और शहर का संतुलन बिगड़ता गया, भ्रष्टाचार और लालच गांव की संस्कृति और संवृद्धि को निगलता गया। प्रधानमंत्री के रूप में स्वयं राजीव गांधी ने स्वीकार किया था कि केंद्र सरकार द्वारा जो 1 रुपया गांव को भेजा जाता है उसमें 15 पैसे ही पंहुच पाते हैं।   
             बाद में इंद्र कुमार गुजराल और एचडी देवगौड़ा देश के प्रधानमंत्री बने, वे अपनी राजनीतिक मजबूरियों के कारण निर्णय लेने की स्थिति में कभी रहे ही नहीं कि गांव की सुध ले सके। सच तो यह है कि आजाद भारत के इतिहास में अटल बिहारी वाजपेयी पहले प्रधानमंत्री थे जिन्होंने देश के 6 लाख गांवों की चिंता की। उनका मानना था कि पक्की सड़कों के बिना गांवों का विकास संभव नहीं है। उन्होंने विकास के माध्यम से विकसित भारत के सपने को साकार करने के लिये 2000 में प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना की शुरूआत की। इस क्रांतिकारी पहल से भारत के ग्रमीण क्षेत्रों का चहुंमुखी विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ। उन्होंने देश के गरीबों के लिए अंत्योदय अन्न योजना चलाई, जो कि सबसे बड़ी योजना थी। आज जो गांव-गांव में लोगों के पास मोबाइल फोन है, इसका पूरा श्रेय उनकी सरकार को जाता है। वहीं 10 वर्षों के अपने शासन में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह गांव को भूल ही गए। जिस गांव को महात्मा गांधी जी ने भारत की आत्मा कहा था, सरकारों ने न काया दिया, न कद। यहां यह कहना पड़ेगा कि प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से छह दशक तक देश में कांग्रेस का शासन रहा है।              
                    गांव के भाव और भविष्य, विश्वास और विकास को अगर किसी ने समझा है तो वे हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। उनकी सोच में गांव की संस्कृति भी है और समृद्धि भी। गांव भी है, शहर भी। वे स्मार्ट शहर की बात करते हैं तो गांव स्मार्टनेस की भी बात करते हैं। महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज्य की बात करते हैं। वे गांव की सभ्यता और संस्कृति के रक्षक के रूप में बात करते हैं। 15 अगस्त 2014 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लालकिले की प्राचीर से अपने पहले भाषण में गावों में मां-बहनों की गरिमा की बात की, घर-घर शौचालय बनाने की बात की। स्वच्छ भारत की बात की। गांव के हर व्यक्ति के पास मोबाइल  कनेक्टिविटी देने की बात की। गांव के स्कूलों में डिस्टेंस एजुकेशन की बात की। गांव के विकास के आधुनिक पैरामीटर्स की बात की। 
            प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वक्तृत्व और कृतित्व का इकबाल है कि आज देश के हर गांव में बिजली है। 2022 तक देश का हर गांव  सड़क संपर्क से जुड़ जाएगा। उनकी सोच  के केंद्र में गांव है, गांव का मन है, गांव का मानव है, गांव का अहसास है, खेत है, खेती है, हल है, अन्न है, अन्नदाता है। गांव को मजबूत बनाने के लिए आने वाले वर्षों में नरेंद्र मोदी सरकार 25 लाख करोड़ रुपए की राशि खर्च करने जा रही है। किसानों की आय को दोगुना करने के लिए सरकार द्वारा आय केंद्रित व्यवस्था विकसित करने की रणनीति पर काम किया जा रहा है। शहरों और गांवों के बीच दूरी कम करने में भी टेक्नोलॉजी की बड़ी भूमिका है। भारतनेट योजना के तहत अब तक सवा लाख से ज्यादा ग्राम पंचायतों को हाई स्पीड ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी से जोड़ा जा चुका है। 2014 में देश के ग्रामीण इलाकों में 60 हजार कॉमन सर्विस सेंटर्स थे, आज इनकी संख्या बढ़कर 3 लाख 65 हजार से ज्यादा हो गई है। इससे 12 लाख से ज्यादा ग्रामीणों को रोजगार मिला है। इन सेंटरों के माध्यम से सरकार अपनी 45 से ज्यादा सेवाएं ग्रामीण इलाकों तक पहुंचा रही है।
         वैश्विक महामारी कोरोना से उत्पन्न चुनौतियों के इस दौर में 24 अप्रैल 2020 को पंचायती राज दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के 31 लाख पंचायत प्रतिनिधियों को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए संबोधित करते हुए कहा कि ‘कोरोना संकट ने देश को और उन्हें बहुत सिखाया है और जो सबसे बुनियादी बात सिखाई है वो है -आत्मनिर्भर होना।‘ ‘आत्मनिर्भर’ शब्द का ज़िक्र उन्होंने वजन डालने के लिए तीन बार किया। लेकिन सच यह भी है कि गांव आत्मनिर्भर होगा तब ही भारत आत्मनिर्भर बनेगा।  
           गांव की समृद्धि ही भारत की समृद्धि है। भारत एक वेद है, हज़ारों गांव इस वेद की ऋचाएं हैं। वेद में प्रत्येक ऋचा का अलग भाव और व्यक्तित्व है। भारत के प्रत्येक गांव का भी अलग भाव और व्यक्तित्व है। लेकिन आज का सच क्या है? गांव शहर का उपनिवेश बनता जा रहा।  शहर अमीर है, गांव गरीब है। शहर अमीर बनता जा रहा है, गांव गरीब बनता जा रहा है। गांवों में अस्पताल नहीं है। अस्पताल है तो स्वास्थ्य सेवायें पूरी नहीं हैं। स्कूलों की भी हालत अच्छी नहीं है। आज चूल्हा से मुक्ति जरूरी है, वन की रक्षा हुई  है। स्किल इंडिया जरूरी है, लेकिन गांव में लघु-कुटीर उद्योग के रूप में इसकी असली सफलता है। प्रकृति और संस्कृति के सौंदर्य की रक्षा करते हुए गांव की रक्षा होनी चाहिए। गांव में संवृद्धि आये विकृति के बिना। विकास की नीति ऐसी हो, जिसमें गांव-शहर का संतुलित विकास हो। शहर बाजार है, तो गांव संस्कृति और विचार। संवृद्धि का आधार सांस्कृतिक हो, प्राकृतिक हो , संस्कृतिविहीन और प्रलयकारी नहीं।   
           वैश्विक महामारी कोरोना से आज विश्व का हर राष्ट्र हिल गया है। उसके इलाज के लिए वैक्सिन की खोज में पूरा विश्व लगा हुआ है। अनेकों संस्थाएं जो गांव आधारित सर्वे और विश्लेषण करती हैं, उनकी मान्यता है कि कोरोना से भारत अभी भी इसलिए बचा है क्योंकि अधिकांश आबादी गांवों में बसती है। वैज्ञानिकों, स्वास्थ्य विशेषज्ञों का भी यही कहना है। गांवों में शुद्ध जल है, शुद्ध हवा है, पेड़ हैं, पौधे हैं, नदी है, सरोवर है, पर्वत है, खेत है, खलिहान है। लेकिन शहरों-महानगरों ने प्रकृति के पांचों महाभूतों क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर पर धावा बोलकर क्षतिग्रस्त कर दिया है। गांव, खेत, खलिहान, वन, उपवन की छाती चीरते शहर सीमेंट कंक्रीट की बेतरतीब इमारतें लेकर दैत्यकार फ़ैल रहे हैं। गंदे नाले, खराब जल, प्रदूषित हवा के कारण शहर-महानगर महामारी का शिकार हो रहा है। कारण है, गांवों से शहरों में अनियोजित पलयान। 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 45.36 करोड़ अन्तर्राजीय प्रवासी हैं जो देश की कुल जनसंख्या का 37 प्रतिशत है। वहीं हाल के आर्थिक सर्वेक्षण में यह बताया गया है कि शहरों में प्रवासी कार्यबल की आबादी 10 करोड़(20 प्रतिशत) से अधिक है। केवल दिल्ली और मुंबई में यह आबादी लगभग 3 करोड़ है। 2019 में किए गए एक अध्ययन की मानें तो दिल्ली,मुंबई,कोलकत्ता महानगर और हैदराबाद, बंगलुरु जैसे देश के बड़े शहरों की 29 प्रतिशत आबादी दैनिक मजदूरों की है।  
              आज कोरोना महामारी से शहरों-महानगरों में उत्पन्न कंपन और डर ने रेलवे की पटरियों पर रहनेवाले, झुग्गी बस्तियों में रहनेवाले, रेलवे पुलों के नीचे  रहनेवाले, सड़कों के किनारे बने अस्थायी बस्तियों में रहनेवाले, एक बेडरूम में बने किचेन और बाथरूम के साथ रहनेवाले, मुंबई के धारावी जैसे झुग्गी बस्ती में रहनेवाले लोगों के मन में अब आने लगा है कि गांव का फूस और घपरैल घर इन नारकीय बस्तियों से बेहतर है। कोरोना माहामारी के इस काल में लोगों में आतुरता बढ़ी है और सहज कहने लगे हैं -'चलो गांव की ओर'।              शास्त्रों में वर्णन है 'आकाश में भगवान् देव और जमीं पर मां ही देवता। भारत का कोई गांव नहीं जहां कुलदेवता नहीं, ग्राम देवता नहीं, निपाई-पोताई नहीं हो रहा हो, दीप न जल रहा हो। कोई राष्ट्र ऐसा नहीं जहां साढ़े छह लाख गांवों में दैनिक दीप प्रज्ज्वलन हो रहा हो। गांव में प्रत्येक आंगन में गुनगुनाता तुलसी का पौधा है। पौधे के पास सुवासित धूप-गंध। शाम को प्रकाशमान दीया। तम को दूर करने की  इससे बड़ी प्रकृति प्रदत्त ताकत क्या हो सकती है! यह ताकत भारत के गांवों में है। पूरे देश को खिलाने की ताकत गांवों में है। इसी ताकत के कारण कोरोना महामारी में भारत आज बचा है। सोशल डिस्टेन्सिंग की सामाजिक, पारिवारिक और नातेदारी की वैदिक परंपरा आज भी गांव में है। यह ताकत भारत के गांवों में है। इसी ताकत के कारण भारत आज बचा है। गांव ने धर्म नहीं छोड़ा, हमने छोड़ा है। गांव के आंचल में सबके लिए जगह होती है। हम भूल गए थे गांव को, मां को। पर मां कभी नहीं भूलती।   


                                                                                                  प्रभात झा
                                                                             (भाजपा राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं पूर्व सांसद)